संत रविदास: भक्ति काल के महान समाज सुधारक और संत

संत रविदास (Saint Ravidas) जिन्हें रैदास या रोहिदास के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय भक्ति आंदोलन के एक महान संत, दार्शनिक और समाज सुधारक थे। इन्हें संत शिरोमणि संत गुरु की उपाधि दी गई है। इन्होंने रविदासीया, पंथ की स्थापना की और इनके रचे गए कुछ भजन सिख लोगों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में भी शामिल हैं। वे निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि थे, जिन्होंने समाज में फैली जात-पात की कुरीतियों का विरोध किया और मानवता की एकता का संदेश दिया। यह दलित समाज के रविदासीय परिवार से आते थे। यह दलित समाज के लिए प्रमुख माने जाते है।

उनका जन्म उत्तर प्रदेश के काशी (वाराणसी) में माघ पूर्णिमा, संवत् 1433 विक्रम (अनुमानित 1377–1490 ईस्वी) के बीच माना जाता है। वे चमार (चर्मकार) जाति से थे और जूते बनाने का काम करते हुए भी आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर रहे। संत रविदास के गुरु प्रसिद्ध संत रामानंद थे, जो कबीर दास के भी गुरु थे। उनके शिष्य के रूप में मीराबाई, चित्तौड़ की झालारानी और अनेक राजा-महाराजा शामिल थे, जो उनके आध्यात्मिक प्रभाव को दर्शाता है। संत रविदास ने समाज में व्याप्त जातिभेद का दृढ़ता से विरोध किया और मनुष्य की समानता का संदेश दिया, जिसके कारण वे आज भी सामाजिक न्याय और मानवता के प्रतीक माने जाते हैं।


रचनाओं में उल्लेख:
भक्ति काल की प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई संत रैदास को अपना गुरु मानती थीं। मीराबाई की कई रचनाओं में संत रैदास का उल्लेख मिलता है, जो उनके आध्यात्मिक प्रभाव को दर्शाता है।

संत रैदास का योगदान और दर्शन
संत रैदास का योगदान केवल साहित्य तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने अपने जीवन और शिक्षाओं से भारतीय समाज में क्रांति ला दी।

1. सामाजिक समानता और समरसता
जातिवाद का खंडन: सबसे बड़ा योगदान जात-पात पर आधारित भेदभाव का खंडन करना था। वे स्वयं चमार जाति से थे, लेकिन उन्होंने अपनी निम्न जाति को आध्यात्मिक उन्नति में कभी बाधा नहीं बनने दिया।
 जाति से ऊपर कर्म: उन्होंने बार-बार यह संदेश दिया कि व्यक्ति की पहचान उसके कर्मों और आंतरिक भक्ति से होती है, न कि उसके जन्म से।  उदाहरण: उनका प्रसिद्ध कथन "मन चंगा तो कठौती में गंगा" (यदि मन शुद्ध है, तो पवित्र नदियों में स्नान करने की आवश्यकता नहीं) इसी बात पर जोर देता है।

2. निर्गुण भक्ति और एकेश्वरवाद
 निराकार ईश्वर: उन्होंने कबीर दास की तरह निर्गुण ब्रह्म (निराकार ईश्वर) की उपासना की। उन्होंने बताया कि ईश्वर मंदिरों, मस्जिदों या तीर्थों में नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में वास करता है।  आंतरिक शुद्धि: उन्होंने बाहरी कर्मकांडों, तीर्थयात्राओं, और धार्मिक आडंबरों का विरोध किया और आत्मिक शुद्धता पर बल दिया।
3. लोकप्रियता और प्रभाव
उनके उपदेश इतने प्रभावशाली थे कि निम्न से लेकर उच्च वर्ग तक, यहाँ तक कि मीराबाई जैसी राजघराने की हस्तियाँ भी उनकी शिष्या बनीं।
उनके अनुयायियों द्वारा बाद में 'रैदास पंथ' नामक एक संप्रदाय स्थापित किया गया, जो आज भी उनके सिद्धांतों पर चलता है।
मृत्यु (देह त्याग)

संत रैदास (रविदास) की मृत्यु (देह त्याग) से संबंधित विवरण, अन्य प्राचीन संतों की तरह ही, विभिन्न मान्यताओं और शोधों के कारण निश्चित नहीं है। उनके निर्वाण को लेकर मुख्य रूप से दो मत प्रचलित हैं:

1. काशी (वाराणसी) का मत
स्थान: अधिकांश लोग यह मानते हैं कि संत रैदास ने अपने जन्म स्थान काशी (वाराणसी) के पास ही, वृद्धावस्था के कारण, अंतिम श्वास ली।

आधार: उनका अधिकांश जीवन काशी में ही बीता और यहाँ उनका सीर गोवर्धनपुर गाँव में विशाल जन्मस्थान मंदिर भी स्थित है।
लोक कथा: कुछ लोक कथाओं में यह भी कहा गया है कि उन्होंने काशी में स्वेच्छा से समाधि ली थी।

2. चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) का मत
स्थान: कुछ ऐतिहासिक उल्लेख और लोकगाथाएँ यह बताती हैं कि उनका निधन चित्तौड़गढ़ में हुआ था। आधार:
चित्तौड़ की रानी मीराबाई (और झालारानी) उनकी शिष्या थीं। रैदास जी ने मीरा के निमंत्रण पर चित्तौड़ की यात्रा की थी।
कुछ ग्रंथों और नाभा दास कृत 'भक्तमाल' के आधार पर भी चित्तौड़ को उनका मृत्यु स्थल माना जाता है।
कुछ कथाएँ यह भी कहती हैं कि चित्तौड़ में रूढ़िवादी तत्वों के आक्रोश के कारण उनकी हत्या कर दी गई थी, हालाँकि यह एक विवादित मत है।

प्रतीक: चित्तौड़गढ़ के किले में आज भी संत रैदास की छतरी (स्मारक) स्थित है।

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