डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (Dr. Sarvepalli Radhakrishnan)

परिचय
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (Dr. Sarvepalli Radhakrishnan) भारत के महान दार्शनिक, शिक्षक
विद्वान, लेखक और स्वतंत्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे। उन्हें आधुनिक भारत का दार्शनिक-
राजनेता कहा जाता है। शिक्षक और शिक्षा के प्रति उनके प्रेम के कारण भारत में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस उनके जन्मदिन पर मनाया जाता है। उनका जीवन वेदांत दर्शन, भारतीय संस्कृति, नैतिकता और शिक्षा के आदर्श मूल्यों का अद्भुत संयोजन है।

परिवारिक पृष्ठभूमि
पिता: सर्वपल्ली वीरस्वामी – मद्रास Presidency में एक मामूली पद पर राजस्व विभाग में कार्यरत थे। वे अत्यंत अनुशासित, धार्मिक और परंपरागत विचारों वाले थे।
माता: सर्वपल्ली सीतम्मा – धार्मिक, सहनशील और सरल स्वभाव की गृहिणी थीं। उन्होंने बच्चों को भक्ति, विनम्रता और नैतिकता के संस्कार दिए।
राधाकृष्णन छह भाई-बहनों में से एक थे। आर्थिक स्थिति सामान्य थी, लेकिन माता–पिता ने अपने बच्चों की शिक्षा में कोई कमी नहीं आने दी।

बचपन का स्वभाव और रुचियाँ
राधाकृष्णन बचपन से ही गंभीर, जिज्ञासु और शांत स्वभाव के थे। उन्हें धार्मिक कथाएँ, पुराण,
वेदांत और आध्यात्मिक ग्रंथ सुनना पसंद था।
उनकी याददाश्त इतनी तेज थी कि वे कम उम्र में ही बड़े-बड़ों की तरह गूढ़ विषयों पर सोचने लगे थे।

धार्मिक प्रभाव

अपने जन्मस्थान तिरुत्तनी और बाद में तिरुपति जैसे पवित्र नगरों में बिताए गए शुरुआती वर्षों ने उन पर गहरी आध्यात्मिक छाप छोड़ी। मंदिरों के वातावरण, मंत्रोच्चारण, और पूजा-
पद्धति ने उनके मन में भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रति सम्मान और लगाव पैदा किया।

प्रारंभिक शिक्षा और शैक्षणिक यात्रा (Early Education and Academic Journey)
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का प्रारंभिक जीवन साधारण होते हुए भी, उनकी असाधारण बौद्धिक क्षमता को प्रदर्शित करता है: प्राथमिक शिक्षा: उनकी प्रारंभिक शिक्षा तिरुपति के क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल और वेल्लोर के कॉलेज में हुई।
दर्शनशास्त्र में रुचि: उन्हें दर्शनशास्त्र की पढ़ाई करने के लिए स्कॉलरशिप मिली। यह उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण दिशा थी।
स्नातकोत्तर (Post-Graduation): उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से दर्शनशास्त्र में एमए की डिग्री प्राप्त की।
थीसिस: उनकी एमए थीसिस का शीर्षक था, 'द एथिक्स ऑफ वेदांत'
(The Ethics of the Vedanta)
. इस थीसिस में, उन्होंने दिखाया कि वेदांत दर्शन में केवल सैद्धांतिक पहलू ही नहीं हैं, बल्कि इसमें व्यावहारिक नैतिकता भी समाहित है। यह उनके गहन दार्शनिक चिंतन का प्रारंभिक प्रमाण था।

प्रारंभिक शिक्षा का संघर्ष

परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यधिक मजबूत नहीं थी, इसलिए शिक्षा प्राप्त करना आसान नहीं था। लेकिन:

माता-पिता ने अत्यंत कठिनाइयों के बीच भी उन्हें विद्यालय भेजा।
कई बार किताबें और फीस जुटाना भी चुनौतीपूर्ण था।
इन कठिनाइयों ने राधाकृष्णन के अंदर आत्मविश्वास, परिश्रम और धैर्य का विकास
किया—जो आगे चलकर उनके व्यक्तित्व की पहचान बन गया। शिक्षक के रूप में करियर की शुरुआत
 मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज: अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने 1909 में मद्रास
प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के शिक्षक के रूप में अपना करियर शुरू किया।
मैसूर विश्वविद्यालय: बाद में, उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय में भी दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।

मुख्य पद:
कलकत्ता यूनिवर्सिटी — प्रॉफ़ेसर और किंग जॉर्ज V चेयर
आंध्र विश्वविद्यालय — उपकुलपति
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) — वाइस चांसलर
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी — स्पाल्डिंग प्रोफेसर (Eastern Religions and Ethics)

भारतीय दर्शन में योगदान
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन को वैश्विक मंच पर नई प्रतिष्ठा दिलाई। उन्होंने यह सिद्ध किया कि भारत का दर्शन केवल धार्मिक आस्था या पौराणिक कथाओं का संग्रह नहीं है, बल्कि यह तर्क, विवेक, आध्यात्मिक अनुभव और मानव मूल्य पर आधारित गहन ज्ञान-
विज्ञान है। उनका सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि उन्होंने भारत के प्राचीन दर्शन को आधुनिक भाषा, आधुनिक संदर्भ और अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक स्तर पर समझाने का प्रयास किया।

मुख्य विचार (बिंदुवार):
भारतीय दर्शन केवल धर्म नहीं, बल्कि जीवन का विज्ञान है। वेदांत मानवता को सत्य, अहिंसा, प्रेम और सार्वभौमिक एकता की शिक्षा देता है।
आध्यात्मिकता और आधुनिकता का समन्वय ही मानवता का वास्तविक मार्ग है। पश्चिमी भौतिकवाद और भारतीय आध्यात्मिकता का संतुलन भविष्य की सभ्यता को दिशा देगा।
सभी धर्मों की मूल भावना एक है — मानवता।
चेतना (Consciousness) की अनुभूति मानव जीवन का सर्वोच्च अनुभव है।
भारतीय दर्शन को विश्व पटल पर स्थापित करने में योगदान

1. वेदांत की आधुनिक व्याख्या
राधाकृष्णन ने अद्वैत वेदांत को नए ढंग से समझाया। उन्होंने कहा कि: वेदांत किसी रूढ़िवाद का नाम नहीं, बल्कि जीने की कला है।

'ब्रह्म' कोई दार्शनिक पहेली नहीं, बल्कि सृष्टि की एकता का वैज्ञानिक सत्य है।

आत्मा और परमात्मा का संबंध अनुभव का विषय है, न कि केवल शास्त्रों का।

उनका मानना था कि वेदांत आधुनिक मनुष्य को मानसिक शांति, नैतिक शक्ति और आध्यात्मिक विकास प्रदान कर सकता है।

2. पूर्व और पश्चिम का दार्शनिक समन्वय
राधाकृष्णन स्वयं भारतीय संस्कृति में जन्मे थे, परंतु पश्चिमी चिंतन से भी समान रूप से परिचित थे। इसलिए वे दोनों परंपराओं को जोड़ने वाले पुल बने। उन्होंने पश्चिमी दार्शनिकों—प्लेटो, डेसकार्टेस, कांट, हेगेल, ब्रैडली—की गहरी व्याख्या की और दिखाया कि पश्चिम और भारत के विचारों में कोई विरोध नहीं, बल्कि पूरकता है।

3. सार्वभौमिक आध्यात्मिकता
उनके अनुसार सच्चा धर्म किसी संस्था का नाम नहीं, बल्कि:
 नैतिक जीवन,
 आत्म-विकास,
 मानवता के प्रति करुणा का दूसरा नाम है।
उन्होंने कहा: "धर्म का उद्देश्य मनुष्य को जोड़ना है, तोड़ना नहीं।" उनका यह विचार आज भी विश्व शांति और वैश्विक भाईचारे के लिए मार्गदर्शक है। 4. धर्म और दर्शन के बीच सेतु डॉ. राधाकृष्णन ने समझाया कि धर्म और दर्शन एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि— धर्म जीवन में आचरण का मार्ग है, दर्शन उसका बौद्धिक आधार।
भारतीय दर्शन दोनों को एक साथ विकसित करता है।
5. ‘Dharmic Humanism’ की अवधारणा

उन्होंने एक नई विचारधारा प्रस्तुत की — धार्मिक मानवतावाद। यह मानता है कि मानवता
सर्वोपरि है और धर्म का कार्य मनुष्य को नैतिक और संवेदनशील बनाना है।

6. भारतीय मूल्यों की वैश्विक रक्षा
द्वितीय विश्वयुद्ध, उपनिवेशवाद, और सांस्कृतिक संघर्ष के दौर में उन्होंने भारत की आध्यात्मिक परंपरा को विश्व में सम्मानपूर्वक स्थापित किया।
उनकी पुस्तकें—* The Hindu View of Life, Eastern Religions and Western Thought, An Idealist
View of Life*— ने भारत की दार्शनिक विरासत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई प्रतिष्ठा दी। भारतीय दर्शन का मुख्य सार (जैसा राधाकृष्णन बताते हैं)

1. एकत्व का सिद्धांत (Unity of Existence)
ब्रह्मांड में सब कुछ एक ही मूल सत्य से उत्पन्न है — ब्रह्म।
मानवता में कोई विभाजन वास्तविक नहीं है।

2. आत्मा की दिव्यता

हर व्यक्ति में अनंत संभावनाएँ हैं। आत्मा सीमित नहीं है — वह दिव्य और शाश्वत है।
3. कर्म और नैतिकता
उन्होंने कर्मयोग को जीवन की सबसे व्यावहारिक शिक्षा कहा। कर्म के बिना मानवता का उत्थान संभव नहीं।

4. आध्यात्मिक अनुभव का महत्व
अनुभूति (Experience) किताबों से बड़ा सत्य है। धर्म का सर्वोच्च रूप व्यक्तिगत आध्यात्मिक जागरण है।

5. सहिष्णुता और समन्वय
भारत सदियों से बहुलता का देश रहा है। उसके दर्शन का मूल है — वसुधैव कुटुम्बकम।

डॉ. राधाकृष्णन की साहित्यिक व दार्शनिक रचनाएँ  डॉ. राधाकृष्णन की रचनाएँ भारतीय दर्शन, धर्म, मानवता, आध्यात्मिकता और आधुनिक विचारों के बीच एक सेतु जैसी हैं। उन्होंने भारत की आध्यात्मिक परंपरा को पश्चिमी विद्वानों की भाषा और बौद्धिक पद्धति में प्रस्तुत किया, जिससे भारत की सोच विश्व-स्तर पर सम्मानित हो सकी।

उनकी अधिकांश पुस्तकें तर्क, आध्यात्मिकता और मानवतावादी दृष्टिकोण पर आधारित
हैं।

1. Indian Philosophy (दो भाग)
यह उनकी सबसे प्रसिद्ध और सबसे प्रभावशाली रचना है। दुनिया भर की यूनिवर्सिटीज़ में इस किताब को आधारग्रंथ माना जाता है। पूरा भारतीय दर्शन — सांख्य, योग, वेदांत, बौद्ध, जैन, मीमांसा आदि — को वैज्ञानिक,
तार्किक और विश्लेषणात्मक ढंग से समझाया। भारतीय दर्शन को पहली बार पश्चिमी दुनिया में सुसंगत, व्यवस्थित और विद्वतापूर्ण,
रूप में प्रस्तुत किया गया।
उन्होंने बताया कि भारतीय दर्शन सिर्फ मोक्ष या आध्यात्मिकता तक सीमित नहीं है—यह जीवन, समाज, नैतिकता और मानव कल्याण का दर्शन है। यह पुस्तक उन्हें विश्व-प्रसिद्ध दार्शनिक बनाती है।

2. The Philosophy of the Upanishads
यह उपनिषदों की व्याख्या पर लिखी गई विश्व-स्तरीय पुस्तक है। उन्होंने उपनिषदों को सिर्फ धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव-मन, चेतना और ब्रह्म पर शोध माना।
जटिल उपनिषदों को आधुनिक भाषा में बेहद स्पष्ट रूप में समझाया।
"आत्मा और ब्रह्म एक हैं" — इस केंद्रीय विचार को तर्क और उदाहरण के साथ पेश किया।
यह पुस्तक उपनिषद को समझने वालों के लिए सबसे प्रामाणिक स्रोतों में से एक है।
3. Recovery of Faith
यह पुस्तक आधुनिक मनुष्य की आस्था के संकट और उसके समाधान पर आधारित है। विज्ञान और तकनीक के बीच मानव की आध्यात्मिक आवाज़ खोती जा रही है। जीवन को केवल भौतिकता से नहीं, बल्कि नैतिकता और आध्यात्मिकता से भी समझना जरूरी है।
"Faith" यानी आस्था अंधविश्वास नहीं — बल्कि मानवता और सत्य की खोज है।
यह आधुनिक जीवन के लिए अत्यंत प्रासंगिक पुस्तक है।

4. The Hindu View of Life
हिंदू धर्म की दार्शनिक जड़ों को समझाने वाली अत्यंत लोकप्रिय पुस्तक।
 हिंदू धर्म एक जीवन-पद्धति है, सिर्फ एक धर्म नहीं।
 सहिष्णुता, बहु-मतवाद, सत्य-अन्वेषण और आत्मा-विश्वास इसकी बुनियाद हैं।
 उन्होंने समझाया कि हिंदू धर्म में कोई एक “डॉग्मा” नहीं — बल्कि स्वतंत्र सोच और प्रयोग है।
 यह पुस्तक दुनिया भर के पाठकों को भारतीय अध्यात्म से जोड़ती है।
5. Eastern Religions and Western Thought
यह उनकी सबसे गहन तुलना-आधारित रचना है।
 पूर्व (India, China) की धार्मिक परंपराओं का पश्चिम (Europe) की दार्शनिक परंपरा से तुलनात्मक अध्ययन।
 उन्होंने सिद्ध किया कि भारतीय दर्शन दुनिया के किसी भी दर्शन से कम नहीं — बल्कि अधिक समृद्ध और प्राचीन है।

पूर्व-पश्चिम के बीच सांस्कृतिक संवाद बनाने का महान कार्य।
6. An Idealist View of Life
यह भारतीय वेदांत और पश्चिमी आदर्शवाद का मिलन-बिंदु है।
मनुष्य का वास्तविक स्वरूप भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है।
जीवन का उद्देश्य स्वयं को समझना, विकसित करना और श्रेष्ठ बनाना है।
समाज, धर्म, नैतिकता और मानव जिम्मेदारी पर बहुत गहरी बातें।
यह पुस्तक दार्शनिकों के लिए तो जरूरी है ही, सामान्य पाठक के लिए भी प्रेरक है।

7. भगवद्गीता — व्याख्या (Commentary)
उनकी गीता-व्याख्या विश्वभर में अत्यंत लोकप्रिय है।
गीता के श्लोकों को आधुनिक मन की दृष्टि से समझाया। कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्ति योग की संतुलित और तार्किक व्याख्या। उन्होंने बताया कि गीता का संदेश सिर्फ धर्म नहीं — बल्कि मानव-कर्तव्य, नैतिकता और आत्मबल है।
यह व्याख्या कई विश्वविद्यालयों में "अधिकृत टिप्पणी" मानी जाती है।
उनकी लेखन शैली की विशेषताएँ
तर्क और अध्यात्म का सुंदर मेल
आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि
सरल, स्पष्ट और प्रभावी भाषा
भारतीय दर्शन का वैश्विक परिचय
धर्म को नैतिकता और मानवता से जोड़ना
समाज और शिक्षा में योगदान

डॉ. राधाकृष्णन का जीवन इस विश्वास पर आधारित था कि शिक्षा ही राष्ट्र को दिशा देती है,
और एक अच्छे शिक्षक के हाथों में देश का भविष्य सुरक्षित रहता है। उन्होंने अपने विचारों और कार्यों से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को एक नए स्तर पर पहुँचाया।

1. शिक्षा को लेकर उनका दर्शन

“Education is the soul of a nation.”
वे मानते थे कि एक देश की शक्ति उसकी सेना, धन या तकनीक में नहीं — उसके शिक्षित
और चरित्रवान नागरिकों में होती है।
उनके शिक्षा-दर्शन के मुख्य आधार:

1. शिक्षा का लक्ष्य केवल रोजगार नहीं, बल्कि मनुष्य का विकास है। उनके अनुसार शिक्षा मनुष्य को सोचने, समझने, निर्णय लेने और नैतिक रूप से सही जीवन जीने की क्षमता देती है।

2. चरित्र निर्माण सर्वोच्च उद्देश्य है।
ज्ञान तभी सार्थक है जब वह मनुष्य को सत्य, करुणा, सहिष्णुता और सेवा के मार्ग पर ले जाए।

3. शिक्षक समाज के वास्तविक निर्माता हैं।
एक अच्छा शिक्षक पीढ़ियों को आकार देता है।
इसलिए शिक्षक को राष्ट्र-निर्माता कहा।
4. शिक्षा में आध्यात्मिकता और नैतिकता का समावेश जरूरी है।
उन्होंने कहा कि बिना नैतिक मूल्यों के शिक्षा अधूरी है।
2. शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख योगदान
डॉ. राधाकृष्णन ने केवल सिद्धांत नहीं दिए, बल्कि शिक्षा-व्यवस्था में व्यावहारिक सुधार भी किए।

(1) भारतीय विश्वविद्यालय आयोग (University Education Commission) के अध्यक्ष 1948 में भारत सरकार ने उन्हें विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष बनाया।

इस आयोग की रिपोर्ट ने भारत की उच्च शिक्षा को नई दिशा दी।
आयोग की प्रमुख सिफारिशें:
विश्वविद्यालय शिक्षा में मानविकी, विज्ञान और अनुसंधान को बढ़ावा शिक्षण की गुणवत्ता सुधारने पर जोर शिक्षक-प्रशिक्षण और बेहतर वेतन
छात्र-शिक्षक अनुपात में सुधार
शिक्षा का राष्ट्रीय विकास से सीधा संबंध
यह रिपोर्ट आज भी भारतीय शिक्षा की बुनियादी रीढ़ मानी जाती है।

(2) शिक्षा सुधारों की कई योजनाएँ
एक विद्वान और प्रशासक दोनों के रूप में उन्होंने अनेक सुधार किए:
पाठ्यक्रमों को आधुनिक बनाना
विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता बढ़ाना
अनुसंधान को बढ़ावा
नैतिक मूल्यों और समाजोत्थान की शिक्षा
उच्च शिक्षा में अंतरराष्ट्रीय आदान-प्रदान
शिक्षकों की भूमिका और जिम्मेदारियों को मजबूत करना उनके विचारों पर आधारित सुधार आज भी लागू होते हैं।

(3) अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में मार्गदर्शन
डॉ. राधाकृष्णन केवल भारत तक सीमित नहीं रहे—वे विश्व-स्तरीय शिक्षा-चिंतक थे।
उनका अंतरराष्ट्रीय योगदान:
UNESCO (यूनेस्को) के उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष
दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर
अंतरराष्ट्रीय शांति, सांस्कृतिक संवाद, और शिक्षा में सहयोग को बढ़ावा
पूर्व और पश्चिम की शिक्षण व्यवस्था को जोड़ने का प्रयास
उनकी भूमिका ने भारत को वैश्विक बौद्धिक नेतृत्व दिलाया।

3. समाज के प्रति योगदान
सर्वधर्म समभाव का संदेश
वे मानते थे कि समाज का विकास तभी होगा जब विभिन्न धर्म और संस्कृतियाँ सद्भाव से रहें। मानवता और नैतिकता पर आधारित समाज उन्होंने कहा कि समाज का भविष्य पुस्तकों से नहीं — मानवीय मूल्यों से तय होता है। युवा वर्ग को प्रेरित करना युवाओं में ऊर्जा, आदर्श और जिम्मेदारी जगाने के लिए वे बार-बार कहते थे:
“युवा केवल डिग्री से नहीं, विचार और चरित्र से महान बनते हैं।”

4. 5 सितंबर — शिक्षक दिवस
जब उन्हें राष्ट्रपति बनने पर विद्यार्थियों और शिक्षकों ने जन्मदिन मनाने की बात कही, तो उन्होंने कहा:
“मेरे लिए इससे बड़ा सम्मान कोई नहीं कि मेरा जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए।”
1954 से यह परंपरा शुरू हुई और आज भारत के हर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में यह दिन शिक्षा और शिक्षक-समर्पण का प्रतीक है। राजनीतिक जीवन
डॉ. राधाकृष्णन का राजनीतिक जीवन शक्ति-प्रदर्शन या सत्ता की इच्छा पर आधारित नहीं था— बल्कि राष्ट्रसेवा, नैतिकता और संस्कृति-संरक्षण पर आधारित था। वे राजनीति में इसलिए आए क्योंकि स्वतंत्र भारत को ऐसे नेताओं की आवश्यकता थी जो विचारों, मूल्यों और शिक्षा को शासन की धुरी बना सकें। उनकी पहचान एक ऐसे राजनेता की रही जो दार्शनिक गहराई, नैतिक दृष्टिकोण और शांति-प्रेम के प्रतीक थे।

1. राजनीतिक यात्रा की शुरुआत
भारत की स्वतंत्रता के बाद देश के पास प्रशासनिक अनुभव वाले, शिक्षित, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और अंतरराष्ट्रीय दृष्टि रखने वाले नेताओं की कमी थी।

यही कारण था कि:
उनकी विद्वता
अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा
तटस्थ और संतुलित विचारधारा
ने उन्हें राजनीति में बुलाया।
वे राजनीति में सक्रिय होने के बावजूद पूरी तरह निष्पक्ष, शिष्ट और मर्यादित शैली में काम करते थे।

2. भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति (1952–1962)
1952 में भारत ने अपना पहला उपराष्ट्रपति चुना — और यह सम्मान डॉ. राधाकृष्णन को मिला।
उनके उपराष्ट्रपति कार्यकाल की प्रमुख विशेषताएँ: राज्यसभा के सभापति के रूप में उदाहरणीय भूमिका राज्यसभा में वे तर्क, शांति और गरिमा के प्रतीक बने।
उन्होंने कहा —“बहस जीतने से अधिक जरूरी है समझना।” वे सदन में तीखी राजनीतिक बहसों को भी शांत, संतुलित और सम्मानजनक ढंग से संचालित करते थे।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों को मजबूत करना उनकी विद्वता ने विदेशी राष्ट्रों में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई।
उन्होंने कई देशों की यात्रा की और सांस्कृतिक संवादों को बढ़ावा दिया।
शिक्षा और नैतिकता को शासन की प्राथमिकता बनाना उपराष्ट्रपति रहते हुए भी वे शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थियों से जुड़े कार्यक्रमों में सक्रिय रहे।

उनका पूरा दशक भारत की राजनीति में शांत, नैतिक और विचारशील नेतृत्व का आदर्श है।

3. भारत के दूसरे राष्ट्रपति (1962–1967)

1962 में वे भारत के राष्ट्रपति बने — और यह वह समय था जब देश को सबसे ज्यादा संतुलित, दूरदर्शी और नैतिक नेतृत्व की जरूरत थी।
उनके राष्ट्रपति कार्यकाल की प्रमुख विशेषताएँ:

नैतिक बल से परिपूर्ण नेतृत्व

वे शक्ति-केन्द्रित राष्ट्रपति नहीं थे—बल्कि नैतिक और बौद्धिक चैतन्य के प्रतीक थे।

1962 चीन युद्ध के कठिन समय में राष्ट्रीय एकता बनाए रखना
जब देश निराशा में था, उन्होंने अपने शांत और साहसी संदेशों से जनता की हिम्मत बढ़ाई।

शिक्षा और संस्कृति को सर्वोच्च प्राथमिकता देना
उन्होंने यह स्पष्ट कहा कि— “राष्ट्र की प्रगति केवल तकनीक से नहीं, बल्कि चरित्रवान नागरिकों से होती है।” सरल और सादगीपूर्ण जीवन

राष्ट्रपति भवन में रहने के बावजूद उनकी जीवनशैली एक साधारण शिक्षक जैसी ही रही — सीधी, शांत, विनम्र।

विश्व राजनीति में भारत की नैतिक छवि बनाना उनकी दार्शनिक प्रतिष्ठा ने भारत को विश्व में “नैतिक नेतृत्व वाले राष्ट्र” के रूप में स्थापित किया।

4. राजनेता नहीं — विचारों के मार्गदर्शक डॉ. राधाकृष्णन राजनीति को सत्ता का मंच नहीं, बल्कि मानव सेवा का माध्यम मानते थे।

उनके राजनीतिक जीवन में कुछ स्पष्ट मूल्य दिखाई देते हैं:
सत्ता से दूरी
राष्ट्रहित सर्वोपरि
उदार और शांत व्यवहार
किसी भी पक्षपात से परे
संवाद और समझ का महत्व
मर्यादा और शिष्टाचार
इसलिए उन्हें केवल नेता नहीं, बल्कि राजनीतिक दर्शन का जीवंत उदाहरण माना गया।

5. उनके राजनीतिक दर्शन का सार
शक्ति का प्रयोग नहीं — शक्ति का संयम
राजनीति में नैतिकता सर्वोच्च
शिक्षा और संस्कृति राष्ट्र की नींव
अंतरराष्ट्रीय शांति और मानवता
राजनय में सौहार्द और संवाद
अंतरराष्ट्रीय योगदान 
डॉ. राधाकृष्णन केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति, दर्शन
और शांति के प्रतीक के रूप में सम्मानित थे।

उनकी विद्वता, नैतिकता और संवाद की क्षमता ने उन्हें वैश्विक स्तर पर भारत का
सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक राजदूत बना दिया।
 उन्होंने पूर्व और पश्चिम के बीच बौद्धिक व सांस्कृतिक सेतु की भूमिका निभाई, जो
आज भी एक आदर्श है।

1. UNESCO में भारत के प्रतिनिधि
 1946 में भारत ने उन्हें UNESCO (United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization) में भेजा।
 यह वह समय था जब विश्व युद्ध के बाद दुनिया शांति और शिक्षा के नए रास्ते खोज रही थी।

2. सोवियत संघ (USSR) में भारत के राजदूत
1949–1952, डॉ. राधाकृष्णन को स्वतंत्र भारत ने सोवियत संघ (रूस) में अपना राजदूत नियुक्त किया।

3. विश्व शांति के समर्थक
डॉ. राधाकृष्णन का अंतरराष्ट्रीय जीवन “एकता, शांति और मानवता” की शिक्षा देने में बीता।

पुरस्कार और सम्मान
डॉ. राधाकृष्णन को विश्वभर में उनकी दार्शनिक प्रतिभा, शिक्षा-दर्शन, नैतिक नेतृत्व और अंतरराष्ट्रीय योगदान के कारण असाधारण सम्मान प्राप्त हुए। उनके सम्मान केवल व्यक्तिगत
उपलब्धियाँ नहीं थे, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत का वैश्विक स्वीकार थे।

1. भारत रत्न (1954)

यह भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है, और डॉ. राधाकृष्णन इस सम्मान को पाने वाले प्रथम few शीर्ष व्यक्तियों में से एक थे।
यह सम्मान उन्हें क्यों दिया गया?
भारतीय दर्शन को विश्व में स्थापित करने
शिक्षा को नई दिशा देने
राष्ट्र-निर्माण में योगदान
नैतिक और आदर्श नेतृत्व प्रदान करने
भारत रत्न ने उनके जीवन-कार्य को राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोच्च मान्यता दी।
2. ब्रिटिश नाइटहुड (Knighthood) — 1931
ब्रिटिश शासन ने 1931 में उन्हें “सर (Sir)” की उपाधि दी।
हालाँकि 1947 के बाद उन्होंने यह उपाधि उपयोग करना बंद कर दिया।
यह सम्मान क्यों मिला? दर्शन और शिक्षा में असाधारण योगदान
अंग्रेज़ी में भारतीय विचारों को प्रतिष्ठा दिलाने की क्षमता
अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक जगत में प्रभाव
यह ब्रिटिश शासन द्वारा दिया गया सर्वोच्च नागरिक-सम्मानों में से एक था।
3. विश्वविद्यालयों से मानद डॉक्टरेट (Honorary Doctorates)
डॉ. राधाकृष्णन दुनिया के सबसे अधिक मानद उपाधियाँ पाने वाले भारतीयों में शामिल हैं।
उन्हें 100 से अधिक देशों के विश्वविद्यालयों ने सम्मानित किया, जिनमें शामिल हैं:
भारत के प्रमुख विश्वविद्यालय
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मद्रास विश्वविद्यालय
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
आंध्र विश्वविद्यालय
विश्व के शीर्ष विश्वविद्यालय
ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय
शिकागो विश्वविद्यालय
सोरबोन विश्वविद्यालय (फ्रांस)
कोलंबिया विश्वविद्यालय
मिशिगन विश्वविद्यालय
टोरंटो विश्वविद्यालय
इन सभी ने उन्हें Doctor of Letters (D.Litt.), Doctor of Philosophy, और अन्य शैक्षणिक
उपाधियों से सम्मानित किया।

4. राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सम्मान
टेक्सास यूनिवर्सिटी द्वारा "विश्व शिक्षाशास्त्र सम्मान"  शिक्षा को वैश्विक स्तर पर दिशा देने के लिए। जर्मनी और फ्रांस के उच्च सांस्कृतिक सम्मान  भारतीय संस्कृति के प्रचार हेतु।
यूनेस्को द्वारा विशेष प्रशंसा
शांति, शिक्षा और सांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा देने के लिए।

सोवियत संघ में सर्वोच्च बौद्धिक सम्मान
भारत–USSR संबंध सुधारने और सांस्कृतिक सद्भाव के लिए।

5. भारत में प्राप्त अन्य सम्मान
साहित्य, दर्शन और शिक्षा पर असंख्य राष्ट्रीय पुरस्कार
कई विश्वविद्यालयों ने उनके नाम से व्याख्यान श्रृंखलाएँ शुरू कीं
उनके योगदान को चिरस्थायी बनाने हेतु
कोट्टोकरा में “राधाकृष्णन इंस्टिट्यूट” सहित कई संस्थान स्थापित किए गए व्यक्तिगत जीवन
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का निजी जीवन उतना ही सरल और अनुशासित था

जितना उनका व्यक्तित्व गम्भीर और विचारशील।
उनका विवाह वर्ष 1903 में सिवाकामु अम्मल से हुआ, जब वे मात्र 16–17 वर्ष की आयु
के थे। सिवाकामु अम्मल अत्यंत धार्मिक, सहनशील और शांत स्वभाव की स्त्री थीं — और उनकी भूमिका राधाकृष्णन के जीवन को स्थिरता देने में बेहद महत्वपूर्ण रही। निधन 

17 अप्रैल 1975, मद्रास (चेन्नई)

अपनी अंतिम वर्षों में भी राधाकृष्णन शांत, संयत और अध्ययनशील बने रहे। वे बीमारी के बावजूद अपने लेखन और चिंतन को जारी रखते थे। उनका निधन भारत के लिए एक दार्शनिक युग के अंत जैसा था। डॉ. राधाकृष्णन की विरासत (Legacy)

1. भारतीय दर्शन को विश्व पटल पर स्थापित करने की विरासत डॉ. राधाकृष्णन वह व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय दर्शन—विशेषकर अद्वैत वेदांत—को तार्किक, आधुनिक और वैज्ञानिक रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत किया।

उनकी किताबों ने दुनिया को बताया कि भारतीय सोच अंधविश्वास नहीं बल्कि गंभीर बौद्धिक परंपरा है।
पश्चिमी दुनिया में Indian Philosophy को समझने की कोई भी गंभीर कोशिश उनके लेखन के बिना पूरी नहीं होती।

2. Teacher’s Day की शुरुआत – शिक्षा का सम्मान
 जब उनके विद्यार्थियों ने जन्मदिन मनाने की इच्छा जताई तो उन्होंने कहा— “अगर आप सच में मुझे सम्मान देना चाहते हैं, तो इस दिन को शिक्षकों को समर्पित कर दीजिए।”
 आज 5 सितंबर पूरे भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।

यह उनकी सबसे जीवंत विरासतों में से एक है

3. दार्शनिक-राष्ट्रपति (Philosopher-President) की विरासत
भारत ने बहुत से राष्ट्रपति देखे हैं, लेकिन राधाकृष्णन की भूमिका अनोखी थी। वे सत्ता से अधिक नैतिकता और विवेक का प्रतिनिधित्व करते थे।
उनके कार्यकाल ने दिखाया कि—
राजनीति में भी बौद्धिकता और नैतिकता संभव है।
राष्ट्रपति का पद राजनीति से ऊपर नैतिक नेतृत्व का स्थान हो सकता है।
उनकी गरिमामयी छवि आज भी राष्ट्रपति पद के लिए एक आदर्श मानी जाती है।

4. मानवता, सहिष्णुता और विश्व–शांति का संदेश
राधाकृष्णन कहते थे—“धर्म का उद्देश्य जोड़ना है, तोड़ना नहीं।”

विश्व–स्तर पर उन्होंने धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता, और वैश्विक नैतिकता का संदेश दिया।
उनकी सोच आज भी यह सिखाती है—
विविधता में एकता
विचार–स्वतंत्रता
मनुष्य पहले, धर्म बाद में

5. शिक्षा दर्शन की अमिट छाप

उन्होंने शिक्षा को सिर्फ नौकरी देने वाली मशीन नहीं, बल्कि मनुष्य को मनुष्य बनाने

वाली प्रक्रिया माना।
उनके शिक्षा दर्शन की विरासत में शामिल हैं—
चरित्र निर्माण
नैतिक शिक्षा
समालोचनात्मक सोच (Critical Thinking)
आध्यात्मिकता और विज्ञान का संतुलन

आज भारत की शिक्षा नीति और विश्वविद्यालयों में उनकी सोच का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।

6. पुस्तकों और साहित्य की विरासत

उनकी कृतियाँ—"Indian Philosophy", "The Hindu View of Life", "An Idealist View of Life"—आज भी दुनिया भर में पढ़ाई जाती हैं।
इन किताबों ने भारतीय आध्यात्मिकता को आधुनिक बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बनाया।

7. नैतिक नेतृत्व और आदर्शवाद की विरासत राधाकृष्णन का पूरा जीवन एक संदेश देता है—
पद बड़ा नहीं, विचार बड़े होने चाहिए
शक्ति से अधिक संयम और विवेक महत्वपूर्ण है
ज्ञान का उद्देश्य सेवा होना चाहिए उनकी विनम्रता और आदर्शवाद नए नेताओं, शिक्षकों और विद्वानों को प्रेरणा देता है।
समावेशी विकास — अंत्यो

पंडित दीनदयाल उपाध्याय

पंडित दीनदयाल उपाध्याय

महर्षि अरविंद (Sri Aurobindo)
रिचय
महर्षि अरविंद आधुनिक भारत के महान दार्शनिक, स्वतंत्रता सेनानी, योगी, कवि और आध्यात्मिक गुरुओं में से एक थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को नई दिशा दी, आध्यात्मिक चेतना को आधुनिक विज्ञान और मानव विकास से जोड़ा, और "इंटीग्रल योग" (संपूर्ण योग) जैसी अद्वितीय साधना पद्धति का निर्माण किया। उनका जीवन स्वतंत्रता संग्राम, आध्यात्मिक साधना, साहित्य, शिक्षा, दर्शन और मानवता के सर्वांगीण विकास का समन्वय है।

जन्म और प्रारंभिक जीवन
पूरा नाम: अरविंदो घोष (Sri Aurobindo Ghose)
जन्म: 15 अगस्त 1872

जन्मस्थान: कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता), भारत
पिता: कृष्णधन घोष – एक सर्जन, पश्चिमी शिक्षा और आधुनिकता के समर्थक माता: स्वर्णलता देवी – धार्मिक, कोमल स्वभाव की बंगाली महिला उनके पिता पश्चिमी सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित थे और चाहते थे कि उनके बच्चे अंग्रेज़ी संस्कृति में पूर्णत: शिक्षित हों। इसलिए अरविंद को बहुत कम उम्र में इंग्लैंड भेज दिया गया।

विदेश में शिक्षा (England: 1879–1893)
सात वर्ष की आयु में वे अपने भाइयों के साथ इंग्लैंड गए और वहाँ मैनचेस्टर, लंदन और कैम्ब्रिज में शिक्षा प्राप्त की।

शिक्षा से जुड़े प्रमुख तथ्य:

अरविंद ने King's College, Cambridge से शिक्षा प्राप्त की अंग्रेज़ी, ग्रीक, लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन आदि भाषाओं में प्रवीण बने।

मात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने कई यूरोपीय भाषाएँ सीख ली थीं।
इंडियन सिविल सर्विस (ICS) के लिए चुने गए, लेकिन घुड़सवारी परीक्षा न देने के कारण वे जॉइन नहीं कर पाए।

इंग्लैंड के साहित्य, दर्शन और राजनीतिक विचारों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसने बाद में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका को प्रज्वलित किया।

भारत वापसी और प्रारंभिक करियर (1893–1905)

भारत लौटने के बाद अरविंद बड़ौदा रियासत (वडोदरा) में कार्यरत हुए।
इस अवधि की प्रमुख गतिविधियाँ:
बड़ौदा कॉलेज में अंग्रेज़ी और फ्रेंच के प्रोफेसर बने। बाद में बड़ौदा कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए। संस्कृत, बंगाली और भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किया। योग और आध्यात्मिक साधना में रुचि बढ़ने लगी। यही समय था जब उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए योजनाएँ बनानी शुरू कीं।

स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका (1905–19100 अरविंद भारत के पहले उग्र राष्ट्रवादी नेताओं में गिने जाते हैं। उन्होंने "पूर्ण स्वराज" का विचार उस समय दिया जब देश में केवल सीमित सुधारों की माँग हो रही थी।
मुख्य योगदान: बंगाल विभाजन (1905) के विरोध में प्रमुख नेता बने। क्रांतिकारी गतिविधियों के बौद्धिक मार्गदर्शक थे। ‘वंदे मातरम्’, ‘कर्मयोगिन’, ‘धर्म’ जैसे पत्रों का संपादन किया। राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन को आगे बढ़ाया।

अलीपुर षड्यंत्र केस (1908) अरविंद को अंग्रेज़ सरकार ने अलीपुर बम मामले में गिरफ्तार किया। एक वर्ष जेल में रहे—यह समय उनके जीवन का बड़ा आध्यात्मिक मोड़ बना। जेल में उन्होंने गहन ध्यान किया और ईश्वरीय अनुभूति प्राप्त की। अदालत में प्रसिद्ध वकील चितरंजन दास ने उनका बचाव किया और वे बरी हो गए।
क्रांतिकारी से योगी बनने की यात्रा मुक्त होने के बाद अंग्रेज़ सरकार की नजरों में वे अत्यंत खतरनाक माने जाने लगे।
1910 में वे गुप्त रूप से चंद्रनगर और फिर पांडिचेरी चले गए। यहीं उनका जीवन क्रांतिकारी से महर्षि अरविंद बनने की दिशा में मुड़ा।

पांडिचेरी का जीवन (1910–1950)
पांडिचेरी (अब पुडुचेरी) में उन्होंने पूर्णकालिक आध्यात्मिक साधना, साहित्य लेखन और योग शिक्षण को अपनाया।

मुख्य कार्य:
"इंटीग्रल योग" (संपूर्ण योग) की स्थापना।
मानवता की आध्यात्मिक विकास यात्रा की नई रूपरेखा।
व्यापक लेखन कार्य—दर्शन, काव्य, आध्यात्मिक विज्ञान आदि।
श्रीमाँ (Mirra Alfassa) के साथ मिलकर श्री ऑरोबिंदो आश्रम की स्थापना।

इंटीग्रल योग (Integral Yoga)
महर्षि अरविंद का सबसे बड़ा योगदान है—इंटीग्रल योग।

इंटीग्रल योग के सिद्धांत: 1. मनुष्य दिव्य है — उसके भीतर असीम क्षमता छिपी है। 2. जीवन ही साधना है — मोक्ष संसार छोड़कर नहीं, जीवन के भीतर ही संभव है। 3. चेतना का रूपांतरण — व्यक्ति, समाज और संसार को दिव्य चेतना से संयुक्त करना। 4. मनुष्य से सुपरमाइंड (सुपरमैन) की ओर विकास — मनुष्य की प्रगति एक निरंतर विकसित होती चेतना है।

उनका लक्ष्य था: "धरती पर दिव्य जीवन की स्थापना।"
साहित्यिक और दार्शनिक रचनाएँ अरविंद एक महान लेखक, कवि और दार्शनिक थे। उनकी रचनाएँ आज भी विश्वभर में पढ़ी और शोध की जाती हैं।

प्रमुख कृतियाँ:

The Life Divine – मानव जीवन और ब्रह्मांडीय चेतना का गहन दर्शन
Savitri – आध्यात्मिक महाकाव्य (24,000 से अधिक पंक्तियाँ) Essays on the Gita – गीता का आध्यात्मिक विश्लेषण
The Synthesis of Yoga – योग के विभिन्न मार्गों का समन्वय

The Human Cycle – मानव समाज का विकास

The Ideal of Human Unity – मानव एकता का दृष्टिकोण
इनके अलावा "Bande Mataram", "Karmayogin" और अनेक लेखन उनके क्रांतिकारी विचारों से भरे हुए हैं।

श्रीमाँ (Mirra Alfassa) और आश्रम

फ्रांस में जन्मी मिर्रा अल्फ़ासा, जिन्हें अरविंद ने "श्रीमाँ" नाम दिया, उनकी प्रमुख आध्यात्मिक सहयोगी रहीं।

उनके संयुक्त नेतृत्व में पांडिचेरी में Sri Aurobindo Ashram विकसित हुआ, जो आज भी विश्वभर से आने वाले साधकों का केंद्र है।

बाद में श्रीमाँ ने Auroville (एक अंतरराष्ट्रीय आध्यात्मिक नगर) की स्थापना की।

दर्शन (Philosophy)
महर्षि अरविंद का दर्शन गहन, आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना के साथ जुड़ा हुआ है।

उनके दर्शन के मुख्य स्तंभ:

चेतना का विकास (Evolution of Consciousness)
मनुष्य का दैवी रूपांतरण
सर्वात्मवाद — संपूर्ण सृष्टि एक ही परम चेतना से व्याप्त
विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय
मानवता का भविष्य – दिव्य जीवन
उनके अनुसार: " दुनिया ईश्वर का विकासशील रूप है।"
मानव समाज और राजनीति पर विचार

अरविंद का मानना था कि समाज की प्रगति केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से नहीं, बल्कि मानसिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास से होती है।

उनकी सूझ–बूझ:

भारत की स्वतंत्रता नियति है — इसे कोई रोक नहीं सकता।

सच्ची स्वतंत्रता आध्यात्मिक स्वतंत्रता है।
मानव सभ्यता का भविष्य एकता और दिव्यता की ओर है।
अंतिम जीवन, समाधि और विरासत
निधन: 5 दिसंबर 1950, पांडिचेरी
उन्हें आश्रम में ही समाधि दी गई—जहाँ आज भी लाखों लोग श्रद्धा से दर्शन करते हैं।

विरासत:

इंटीग्रल योग की विश्वव्यापी मान्यता

ऑरोविले – मानव एकता का शहर
अनेकों शोध संस्थान और शैक्षणिक कार्यक्रम

साहित्य, दर्शन और योग पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र
अरविंद का जीवन भारत और मानवता के लिए एक प्रेरणास्रोत है। उन्होंने दिखाया कि साधना केवल पर्वतों में नहीं, जीवन के बीच होती है।

निष्कर्ष

महर्षि अरविंद एक बहुआयामी व्यक्तित्व थे—क्रांतिकारी, दार्शनिक, कवि, योगी, आध्यात्मिक गुरु और युगदृष्टा। उन्होंने न केवल भारत की स्वतंत्रता में योगदान दिया, बल्कि मानव चेतना को नए युग की दिशा भी दी।
उनका लक्ष्य केवल आध्यात्मिक मुक्ति नहीं, बल्कि पृथ्वी पर दिव्य जीवन की स्थापना था।

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